अर्जुन की आंखों से देखें श्रीकृष्ण का विराट रूप: गीता के अध्याय 11 का अद्भुत रहस्य

महाभारत के युद्धभूमि में अर्जुन को जो अनुभव हुआ, वह सिर्फ एक योद्धा के द्वंद्व का प्रसंग नहीं था, बल्कि एक दिव्य और अलौकिक रहस्य का उद्घाटन भी था। जब अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से उनके विराट स्वरूप को दिखाने की प्रार्थना की, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें दिव्य दृष्टि प्रदान की। इसके बाद जो दृश्य अर्जुन के सामने प्रकट हुआ, वह इतना विस्मयकारी और भयावह था कि उसका वर्णन स्वयं भगवद्गीता के अध्याय 11 में विस्तार से मिलता है।

विराट स्वरूप का प्रथम दर्शन

श्रीकृष्ण ने जब अपना विराट रूप धारण किया, तो अर्जुन ने अपने दिव्य नेत्रों से संपूर्ण ब्रह्मांड को उनके शरीर में समाहित देखा। अर्जुन ने कहा कि उन्हें सभी देवता, ऋषि, नाग और स्वयं ब्रह्मा कमलासन पर विराजमान दिखाई दिए। यह अनुभव किसी भी साधारण मनुष्य के लिए असंभव था और अर्जुन इस अद्भुत रूप को देखकर श्रद्धा, भय और विस्मय से भर उठे।

अनंत शक्ति और अलौकिक तेज

अर्जुन ने श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा कि इस रूप का कोई आदि, मध्य या अंत नहीं था। उनकी शक्ति अनंत थी और उनकी आँखें सूर्य और चंद्रमा के समान चमक रही थीं। उनका मुख अग्नि की लपटों की तरह प्रज्वलित था, जो समस्त सृष्टि को अपनी ऊर्जा से तपा रहा था। यह दृश्य दर्शाता है कि ईश्वर केवल सृजनकर्ता ही नहीं, बल्कि संहारक और नियंता भी हैं।

भय और श्रद्धा का संगम

अर्जुन ने आगे कहा कि उन्होंने विराट रूप में असंख्य मुख, नेत्र, भुजाएँ, उदर और विकराल दाँत देखे। इस स्वरूप को देखकर सभी लोक भयभीत हो गए और स्वयं अर्जुन भी डर और आश्चर्य से भर गए। वे समझ नहीं पा रहे थे कि उनके सामने खड़े इस विराट स्वरूप का उद्देश्य क्या है।

श्रीकृष्ण का उत्तर: "कालोऽस्मि"

जब अर्जुन ने भयभीत होकर पूछा, “हे प्रभु! आप कौन हैं?”, तब श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया—
“कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धो”
अर्थात् “मैं काल हूँ, लोकों का संहार करने वाला।”
इस वाक्य ने अर्जुन को यह गहरी समझ दी कि धर्मयुद्ध में उनका कार्य केवल एक साधन का है, जबकि वास्तविक कर्ता स्वयं ईश्वर हैं।

अर्जुन की स्तुति और निवेदन

इस अद्भुत अनुभव के बाद अर्जुन ने श्रीकृष्ण को जगद्गुरु, परमात्मा और अनंत रूपधारी कहकर स्तुति की। लेकिन विराट स्वरूप की तीव्रता और भयावहता से उनका मन विचलित हो गया। इसलिए उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि वे अपना सौम्य चतुर्भुज रूप धारण करें।

जब श्रीकृष्ण ने पुनः अपना शांत और मानव स्वरूप धारण किया, तब अर्जुन का चित्त स्थिर हुआ और उन्होंने शांति का अनुभव किया।

विराट रूप का आध्यात्मिक संदेश

श्रीकृष्ण का विराट स्वरूप केवल एक चमत्कार नहीं था, बल्कि एक गहरा आध्यात्मिक संदेश था। इसका उद्देश्य यह बताना था कि मनुष्य अपने अहंकार और शक्ति के भ्रम में कितना ही बड़ा क्यों न हो, वह मात्र एक साधन है। वास्तविक नियंता ईश्वर ही हैं—वे ही सृष्टि के कर्ता, भोक्ता और संहारक हैं।

निष्कर्ष

भगवान श्रीकृष्ण का विराट रूप दर्शन, जो केवल अर्जुन को प्राप्त हुआ, मानवता के लिए एक गहन आध्यात्मिक पाठ है। यह हमें सिखाता है कि जीवन की हर परिस्थिति में ईश्वर ही अंतिम शक्ति हैं और हम केवल उनके माध्यम हैं। अर्जुन का यह दिव्य अनुभव न केवल महाभारत की कथा का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, बल्कि अध्यात्म और भक्ति मार्ग का शाश्वत सत्य भी है।